पंडुयी राज का आरम्भ
पंडुई राज
यह स्थान बिहार के जहानाबाद जिला के अंतर्गत आने वाली ग्राम पण्डुई में अवस्थित है।
पण्डुई महाराज किला
पंडुयी महाराज किला मुख्य द्वार
पंडुई राज का इतिहास
क्यालगढ़ राज के बाद उसका नया
"पंडुई राज"
"पंडुई राज" का इतिहास प्रारम्भ होता है, क्यालगढ़ राज के विध्वंश के बाद.
क्यालगढ़ राज के सोनभद्री वत्स गोत्री राजा अदन सिंह (दल सिंह) ने औरंजेब के पुत्र बहादुर शाह के साथ युद्ध किया और क्यालगढ़ हार गए. उसके बाद मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ने क्यालगढ़ राज को बर्बाद कर दिया.
क्यालगढ़ के युद्ध के हार जाने के बाद वहां के राजा अदन सिंह ने अपने पुत्र राजकुमार तेजा सिंह के साथ अपनी सेना को ले कर भोजपुर में अपने राजपुत मित्र भोजपुर के राजा सुधिष्ट सिंह के यहाँ गए.
क्यालगढ़ हार के बदला लेने के लिए सन 1710 में वे अपनी सेना और अपनी मित्र के मदद से मुग़ल बादशाह बहादुर शाह के साथ भोजपुर में युद्ध किया. वहां भी वे लोग युद्ध हार गए. राजा अदन सिंह अपने मित्र के साथ ही उस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए. राजा अदन सिंह के पुत्र राजकुंमार तेजा सिंह युद्ध में बच गये.
क्यालगढ़ के राजा अदन सिंह को मात्र एक सन्तान राजकुंमार तेजा सिंह ही थे, वे वहां से लौट कर अपने ननिहाल शीतल गढ़ आये, जो सन 1708 अपने ननिहाल शितालगढ़ में नाना राजा शीतल सिंह के द्वारा उत्तराधिकारी बनाए गये.
राजा तेजा सिंह शितलगढ़ के राजा बन गए थे, फिर करीब 3-4 साल तक राजा तेजा सिंह को जब कोई संतान नही हुआ तब एक महात्मा ने बताया कि आप दरधा नदी के पश्चमी किनारे पर अपना राज स्थापित करें. वो शुभ भूमि है तब आपकी वंश वृद्धि होगी.
ऐसा कहने पर राजा तेजा सिंह जब पश्चमी किनारे पर गढ़ हेतु भूमि देखने गए तो उन्होंने देखा की एक टीलेनुमा आकृति का एक भूभाग है जो तीन तरफ से जल से घिरा है और हमेशा मात्र इसका 2 भाग ही पानी के बाहर होता है, ये पानी में जरूर है पर ये डूबता कभी नही है और इस पर एक शिवलिंग भी अवस्थित था.
स्थानीय लोग इस भूभाग को" पंडुबा" कहते थे. कुलपुरोहित ने भी इस स्थान को अत्यंत शुभ बताया. तब राजा तेजा सिंह को ये भूभाग पसन्द आया जो पंडुबा से पंडुई हो गया.
1735 में पंडुई ग्राम टेकारी राज के ज़मीनदारी में था और वहां उनके सामन्त पोखवा ग्राम के बाबू साहेब थे. चौधरी तेजा सिंह को कुलपुरोहित की आज्ञा के अनुसार अपना राज शितालगढ़ से पंडुई स्थापित करना था इसलिए टेकारी राज से श्री तेजा सिंह ने पंडुई की जमीनदारी खरीद ली थी जिसमे टेकारी के सामन्त पोख्वां के बाबू का भी हस्तछर था और स्वतंत्र पंडुई राज की स्थापना हुई.
यहीं राजा तेजा सिंह ने "पंडुई राज" के नाम से अपना गढ़ बनाया. 10 वर्ष के अंदर ही शितलगढ़ से कुछ दूरी पर पंडुई राज स्थापित हुआ.
पुराने शितालगढ़ किले जो अभी जमींदोज हो चूका है और मात्र टीले के रूप में देखा जा सकता है. शितलगढ़ से "पंडुई राज " गढ़ तक के नदी के पास तक सुरंग की भी व्यवस्था की थी।
पंडुई राज 1720 से आगे चल के करीब जो परम्परागत तौर पर सन 1765 तक निर्विरोद्ध चला.
सन 1765 के बाद क्यालगढ़, अरवल का बहुत बड़ी ज़मीनदारी का भाग टिकारी राज के अंतर्गत आ गया था. टिकारी राज की ज़मीनदारी अरवल क्षेत्र में फ़ैल चुकी थी.
18वीं शती तक 900+ ग्राम पंडुई राज के 16 आने मौजे में आते थे. लेकिन फिर 19वीं शती के बाद में यह सिमट के 320 ग्राम हो गया.
फिर अंग्रेजों के भारी प्रकोप के फलस्वरूप कई तरह के नियम बना कर पंडुई राज के किलों के साथ शितालगढ़ स्थित किला को ढाह दिया गया, हथियार व् सेना रखने के अधिकार से वंचित कर दिया गया.
ईस्ट इंडिया कंपनी के द्वारा पंडुई राज पर कई तरह के प्रतिबंध लगाए गए और शासन के अधिकार को कम और सिमित कर दी गयी। तब पंडुई राज से 19वीं शती के मध्य में ही राजा का पद्द्वि छीन ली गयी और पंडुई मात्र राज रह गया.
इस प्रकार पूर्व में नोनारगढ़, क्यालगढ़, शितालगढ़ तक पहले मुगलों से संघर्ष किया फिर अंग्रेजों से पंडुई राज संघर्ष करते ही रहा। और अन्ततः पंडुई राज 75% जब नष्ट हो गया.
लगभग 1910 के बाद पंडुई राज के परिवार 4 दरवारों में बंट गया. बड़ा दरबार, मंझला दरबार, संझला दरबार और छोटा दरबार.
तब 1934 के सरकारी रिपोर्ट के अनुसार पंडुई के सिर्फ मंझला दरवार की आमदनी 1 लाख 10 हजार सलाना सालाना थी और इस तारीख में पंडुई राज का मंझला दरवार ही सबसे सम्पन्न था, तब कहते थे की 4 आना में सिर्फ मंझला दरवार और 12 आने में पूरा पंडुई राज के अन्य सभी दरबार आते थे.
सन 1910 के बाद के पंडुई राज परिवार के नफासत, तुजकाई, महिनी और अंदाजगी के भी बहुत किस्से मशहुर हुए हैं जिसे टिकारी राज के महाराजा गोपाल सरण सिंह यह सब जान कर भी दांतों तले उँगलियाँ दबाते थे.
कहा जाता है की पंडुई राज टेकारी राज 6 आने के हिस्सेदार थे व् टेकारी राज और पंडुई राज का दोनों में आपस का परस्पर सम्बन्ध थे न की उनके अंतर्गत थे.
लेकिन फिर भी टेकारी राज 1934 के रिपोर्ट के अनुसार पंडुई राज के मुकाबले कई गुना सम्पन्न और बड़ा राज था और इसके पास अंत तक राजा की पदवी रही अर्थात टिकारी राज "राजा" थे. टिकारी राज पंडुई राज से पदवी और सम्पन्नता दोनों में ऊँचे थे.
पंडुई राज की 1952 तक ही राज-पाठ और जमींदारी रही. 1952 में बिहार में सभी स्टेट की जमीनदारी समाप्त हो गयी थी. भारत से राज तंत्र का अंत हो गया था.
1765 के सन्धि के अनुसार बिहार, बंगाल और उडीसा की दीवानी या शासन अंग्रेजों की हाथ में थी. इसलिए यहां इस क्षेत्र बिहार, बंगाल और उडीसा में दस्तावेज़ और सरकारी तौर पर कोई भी रियासत या देशी रियासत (प्रिसली स्टेट्स) के लिस्ट में नही आया था.
1952 के बाद पंडुई राज परिवार को सरकारी मुआवजा मिलता था जो सन 1970 में बन्द हुआ तो फिर बैंकिग लाईसेंस मिल गया, आगे चल के ये भी समाप्त हो गया.
आज इस ऐतिहासिक धरोहर अब एक दम से नष्ट होने के कगार पर है,इस पर बिहार सरकार ध्यान नही दे रही है, ऐसे ही बहुत से धरोहर है जो नस्ट होने को है।
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ध्यान देने केलिये धन्यवाद
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